बादल गये सागर के पास,
लेने कुछ बूंदें उधार।
कहा उन बूंदों से,
करूंगा जग का उद्धार।।
सुनकर बादल के विचार,
सागर हुआ हैरान।
सोचा लेता हूँ इसका इम्तिहान,
और किया सवालों से परेशान।।
ओह मुर्ख बादल…..तू क्यों उनपर बूंदें बरसाता है।
जबकि तेरा तो कोई गुण भी नहीं गाता है।।
बरस जाए दो दिन से ज्यादा।
तो वही जग, तुझे सह भी नहीं पाता है।।
बादल जवाब देते हुए…..महाराज, यही तो मेरा धर्म है।
यही तो मेरा कर्म है।।
मैं तो उस धरती मां के लिए बरसता हूँ।
जिसका दिल बहुत नर्म है।।
के हल रूपी, जो भेदता खंजर है।भयानक, वो देखने में मंजर है।।
मुझे तो उसके लिए पिघलना ही होगा।
जो जलधार बिन हुई बंजर है।।
एक वो भी है, जो खाली घड़ों को भरती है।और प्यासों की प्यास को हरती है।।
मैं तो उस बहती नदिया के लिए बरसाता हूँ।
जो आपके खारे पानी को भी,
पीने योग्य करती है।।
अब बादल व्यंग्य में बतलाता है।कि उधार लिया हुआ जल,
ऋण के साथ वो चुकाता है।।
यह आपकी और मेरी सोच में अंतर ही है।
इसीलिए वो मीठा जल फिर खारा हो जाता है।।
©thekushofficial
Nic line bro
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nyc……
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Nice
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नाचीज़ की कला के कदर दानों को तहे दिल से शुक्रिया
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Wow! This is deep
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thank you ananya mam
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Haha, call me Ananya. I am just a teenager and no professional at all!
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I’m sorry mam but I’m forced of habits.
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your thinking is really good
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शुक्रिया महोदया
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बहुत खूब👏
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शुक्रिया आस्था जैन जी 😇😇😇
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